बाजार में मांग बढ़ाने के लिए कुछ बड़े फैसले लेने

बाजार में मांग बढ़ाने के लिए कुछ बड़े फैसले लेने में आर्थिक सुस्ती लगातार गहरा रही है और इससे निपटने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जिन उपायों की घोषणा की है, वे हालात के लिहाज से नाकाफी लगते हैं। हो सकता है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर का घटकर 5 फीसदी रह जाना इस संकट का निम्नतम बिंदु हो। लेकिन यह भी संभव है कि अगली तिमाही में इससे भी खराब स्थिति नजर आए। आंकड़े बताते हैं कि मैन्युफैक्चरिंग जैसा अहम सेक्टर महज 0.6 फीसदी की दर से आगे बढ़ा, जबकि पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि में यह12 फीसदी दर से बढ़ा था। एग्रीकल्चर सेक्टर भी पिछले साल 5.1 फीसदी के मुकाबले इस साल गिरते हुए 2 फीसदी पर पहुंच गया। कोर सेक्टर इंडस्ट्रीज का विकास भी अप्रैल-जून की अवधि में महज 3 फीसदी रहा। ये स्थिति जल्द पलटती भी नहीं लगती क्योंकि विकास को पुन: रफ्तार देने के लिए जिन कदमों की हाल ही में घोषणा की गई है, उनका असर होने में कुछ समय तो लगेगा। इन कदमों में पिछले बजट में की गई कई घोषणाओं को वापस लेने के साथ-साथ सरकारी बैंकों के महाविलय की घोषणा भी शामिल है, जिससे सरकारी बैंकों की संख्या घटकर महज 12 रह जाएगी। कहना होगा कि विदेशी व घरेलू निवेशकों पर बढ़े सरचार्ज को वापस लेना, कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी सीएसआर के उल्लंघन के मामलों को आपराधिक न मानना और स्टार्टअप्स से जुड़े एंजेल टैक्स के प्रावधानों को वापस लेना सही दिशा में उठाए गए कदम हैं। इससे निश्चित ही इंडस्ट्रीज को कुछ राहत मिलेगी। ऑटो सेक्टर के लिए किए गए कुछ अन्य उपाय भी मरहम की तरह हैं। जहां तक सरकारी बैंकों के विलय की बात है, तो इससे आखिरकार प्रशासनिक उपरिव्यय कम होने से बैंकिंग सेक्टर की प्रभावोत्पादकता तो बढ़ सकती है, लेकिन इसका अल्पकालिक प्रभाव उतना सकारात्मक न भी हो। गौरतलब है कि यह ऐसा वक्त है, जब बैंकों को क्रेडिट फ्लो बढ़ाने पर फोकस करना चाहिए, बजाय इसके कि विभिन्न् इकाइयों को मिलाकर एक करने की प्रक्रिया में उलझा जाए। सरकारी बैंकों का विलय एक जटिल व समयसाध्य प्रक्रिया है। हां, यह सही है कि दीर्घकालिक सुधार भी होने चाहिए, लेकिन इस समय क्या वाकई ऐसा कदम उठाने की जरूरत थी? बहरहाल, ऐसा भी नहीं लगता कि इन तमाम उपायों के सम्मिलित प्रभाव से उपभोक्ता मांग पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ेगा या अर्थव्यवस्था पुन: कुलांचे भरकर दौड़ने लगेगी, जिसकी कि इस वक्त बेहद जरूरत है। सरकार को अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों के लिए छुटपुट उपाय करने के बजाय कहीं ज्यादा व्यापक विजन के साथ इसे समग्र तौर पर उबारने की नीतियां तैयार करने की जरूरत है। यह अच्छी बात है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह संकेत दिया कि घोषणाओं का एक और दौर अभी बाकी है, जिसका हमें भी बेसब्री से इंतजार है। बाजार में मांग बढ़ाने के लिए कुछ बड़े फैसले लेने होंगे। ग्रामीण मांग बढ़ाने हेतु सरकार को बुनियादी चीजों की ओर लौटना होगा। इस क्रम में वह मनरेगा का दायरा बढ़ा सकती है। गरीबों के हाथ में पैसा पहुंचाने के लिए 60000 करोड़ रुपए का जो मौजूदा आवंटन है, उसे और बढ़ाना होगा, जिसकी विशेषज्ञ पिछले कुछ समय से मांग कर रहे हैं। मौजूदा आवंटन तो पिछले वित्त वर्ष के पुनरीक्षित अनुमानों से भी कम है। ग्रामीण इलाकों में पसरी निराशा को देखते हुए इसमें व्यापक इजाफे की दरकार है । दूसरी बात, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि बुनियादी ढांचे में निवेश वास्तव में एक धमाकेदार चीज है, जिससे निश्चित ही अर्थव्यवस्था को संबल मिलेगा। सीतारमण इस मामले में वाजपेयी सरकार से प्रेरणा ले सकती हैं, जिसने वर्ष 2001 में स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना का आगाज किया था। इससे देशभर में सड़क निर्माण की तीव्र प्रक्रिया शुरू हुई थी और वर्ष 2003-04 तक देश की विकास दर 8 फीसदी से ऊपर पहुंच गई थी। इस वक्त अनेक क्षेत्रों में निवेश की जरूरत है, लेकिन यह एक बड़ा देश है और कई इलाके अभी भी सड़क संपर्क से दूर हैं। सड़कों के अलावा और भी ऐसे कई इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर हैं, जिनमें तुरंत सुधार की जरूरत है। हमारा देश बिजली, रेलवे व बंदरगाह समेत अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर की उपलब्धता और गुणवत्ता के मामले में अपने कुछ पड़ोसी देशों से अभी भी पीछे है। तीसरी बात, भूमि व श्रम की क्षमताओं का समुचित दोहन सुनिश्चित करने के साथ-साथ पूंजी की लागत घटाने के लिए भी सुधार जरूरी हैं। भूमि अधिग्रहण के साथ श्रम की जटिलताओं ने पड़ोसी देशों के मुकाबले हमारे यहां निजी निवेश को काफी मुश्किल व महंगा बना दिया है। चीन-अमेरिका के मध्य गहराते ट्रेड वॉर के नतीजतन भारत के लिए काफी संभावनाएं बन रही हैं। लेकिन लगता नहीं कि हमारा देश इन अवसरों को भुना पाएगा, क्योंकि यहां एक इंडस्ट्री स्थापित करने की लागत बहुत ज्यादा है और ऐसे में निवेशक दूसरे दक्षिण-पूर्वी देशों में जाना पसंद करेंगे, जहां इसकी प्रक्रिया अपेक्षाकृत काफी सुगम है। चौथी बात, सार्वजनिक इकाइयों का विनिवेश भी एक ऐसा विषय है, जिस पर हाल के वर्षों में वास्तविक अमल के बजाय चर्चा ही खूब होती रही है। एक सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई द्वारा दूसरी इकाई की इक्विटी खरीदना विनिवेश का विश्वसनीय तरीका नहीं, भले ही ऐसा राजस्व लक्ष्यों को साधने के लिए किया जाता हो। यहां पर एक बार फिर कहना होगा कि वाजपेयी सरकार के दौरान जिस तरह सार्वजनिक सेक्टर के विनिवेश को रणनीतिक ढंग से अंजाम दिया गया, उसका आज भी कोई मुकाबला नहीं। बाद में यूपीए सरकार भी कुछ कंपनियों की इक्विटी बेचने में सफल रही थी, लेकिन उस समय शेयर बाजार में उछाल न दिखने की वजह से वह लाचार रह गई। लेकिन पिछले पांच सालों में मोदी सरकार के लिए तो ऐसी कोई लाचारी नहीं रही। अंत में हम यही कहेंगे कि यह ऐसा समय है, जब हम राजकोषीय घाटे के मानकों से चिपके न रहें। आज यदि सरकार विकास को रफ्तार देने के क्रम में सही क्षेत्रों में अपने खर्चो को बढ़ाती है और इस चक्कर में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य से थोड़ा इधर-उधर भी हो जाती है तो कोई भी उसे दोष नहीं देगा। यही तो मौजूदा वक्त की मांग है। अतीत में भी ऐसा किया जाता रहा है, लिहाजा 3.3 फीसदी का लक्ष्य इस सरकार के लिए भी अटल आंकड़ा नहीं होना चाहिए। वास्तव में 5 फीसदी विकास दर भारत जैसे देश के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। ना ही 6 या 7 फीसदी दर को कहा जा सकता है। यह स्वीकारने का समय आ गया है कि देश को अपनी विकास दर को कम से कम 9 फीसदी तक ले जाना होगा। हम उम्मीद करें कि देश की अर्थव्यवस्था को मौजूदा सुस्ती से उबारने के लिए अल्पकालिक उपायों के साथ-साथ ऐसे नीतिगत फैसलों को भी अंजाम दिया जाएगा, जिससे आगे चलकर हम इस लक्ष्य को साध सकें।